मज़हब
सोचा कुछ कह दूँ मज़हब पे पर क्या करें ये जुबान खामोश है तू कौन है जो मुझसे कह दे के क्या मज़हब है मेरा अरे इंसान हूँ ये काफी है मोहोब्बत ही तो खुदा है मेरा सुना है यहाँ मज़हब पे बटवारा हो रहा है क्यों खुद पे यकीं नहीं इंसां होने का जो सबूतों का पिटारा खोला जा रहा है!!!! अनिल करनगरु