परिवर्तित समय और इन्सान

 


धन का अभिमान कर रहा इन्सान ,

रिश्तों को नहीं, धन-दौलत को मान रहा भगवान्,

परिवार की खुशियों को खरीदते देखा मैंने उसे, 

वो जल्दी में था इतना के, भूल गया सब सामान। 

 

एक शख्स वो भी था, जिसे धन का न था ज्ञान 

रिश्तों को ही मान बैठा था मुर्ख अपनी पहचान 

मिट्टी के आशियाँ को महल बताता था वो, 

जिसमे रिश्तों और मोहब्बत का पड़ा था सामान। 


बच्चों का बचपन देखो अब नया हो गया ,

गलियां वीरान और घर का कमरा मैदान हो गया, 

मैंने कभी उसे दौबारा उस गली गुजरते नहीं देखा ,

जहाँ हर रोज लगाते थे कभी अपनी खुशियों की दुकान। 


धन का अभिमान कर रहा इन्सान, 

रिश्तों को नहीं अब धन-दौलत को मान रहा भगवान ।

                                     अनिल करानगरु

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